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शेर
छेड़ती हैं कभी लब को कभी रुख़्सारों को
तुम ने ज़ुल्फ़ों को बहुत सर पे चढ़ा रक्खा है
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
शेर
की दिल ने दिल-बरान-ए-जहाँ की बहुत तलाश
कुइ दिल-रुबा मिला है न दिल-ख़्वाह क्या करे
मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार
शेर
वो हवा-ख़्वाह-ए-चमन हूँ कि चमन में हर सुब्ह
पहले मैं आता हूँ और बाद-ए-सबा मेरे बा'द
मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल
शेर
ख़्वाह काफ़िर मुझे कह ख़्वाह मुसलमान ऐ शैख़
बुत के हाथों में बिका या हूँ ख़ुदा की सौगंद
रज़ा अज़ीमाबादी
शेर
वो हवा-ख़्वाह-ए-नसीम-ए-ज़ुल्फ़ हूँ मैं तीरा-बख़्त
क्यूँ न मरक़द पर करे दूद-ए-चराग़-ए-शाम रक़्स
मुंशी खैराती लाल शगुफ़्ता
शेर
'शाइर' अजीब रंग से गुज़री है अपनी उम्र
दुनिया में नाम भी न सुना ख़ैर-ख़्वाह का
आग़ा शाएर क़ज़लबाश
शेर
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले