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शेर
बुलबुल से कहा गुल ने कर तर्क मुलाक़ातें
ग़ुंचे ने गिरह बाँधीं जो गुल ने कहीं बातें
बक़ा उल्लाह 'बक़ा'
शेर
चटक में ग़ुंचे की वो सौत-ए-जाँ-फ़ज़ा तो नहीं
सुनी है पहले भी आवाज़ ये कहीं मैं ने
अख़्तर अली अख़्तर
शेर
गुल अपने ग़ुंचे अपने गुल्सिताँ अपना बहार अपनी
गवारा क्यूँ चमन में रह के ज़ुल्म-ए-बाग़बाँ कर लें
साग़र निज़ामी
शेर
किस के मजरूह गुलिस्ताँ में हैं मदफ़ूँ जो हनूज़
ग़ुंचे आते हैं नज़र सूरत-ए-पैकाँ मुझ को
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
गुल ही इस बाग़ से जाने पे नहीं बैठा कुछ
गठरी ग़ुंचे ने भी अज़-बहर-ए-सफ़र बाँधी है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
जब ग़ुंचे ने सर अपना गरेबाँ से निकाला
बुलबुल ने क़दम फिर न गुलिस्ताँ से निकाला
चंदू लाल बहादुर शादान
शेर
तमाम यादें महक रही हैं हर एक ग़ुंचा खिला हुआ है
ज़माना बीता मगर गुमाँ है कि आज ही वो जुदा हुआ है
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
शेर
जिगर मुरादाबादी
शेर
अज़ीज़ान-ए-वतन को ग़ुंचा ओ बर्ग ओ समर जाना
ख़ुदा को बाग़बाँ और क़ौम को हम ने शजर जाना