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शेर
ख़्वाब का दरवाज़ा कुइ मसदूद कर देता है रोज़
पड़ते हैं रातों को याँ ऐसे ही पत्थर ख़्वाब में
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
मैं भी सपने दर आने के सब रस्ते मसदूद करूँ
तुम भी आँखें बंद न करना वस्ल का मौसम आने तक