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शेर
मैं अपने दुश्मनों का किस क़दर मम्नून हूँ 'अनवर'
कि उन के शर से क्या क्या ख़ैर के पहलू निकलते हैं
अनवर मसूद
शेर
ये न जाने थे कि उस महफ़िल में दिल रह जाएगा
हम ये समझे थे चले आएँगे दम भर देख कर
ममनून निज़ामुद्दीन
शेर
ख़्वाब में बोसा लिया था रात ब-लब-ए-नाज़की
सुब्ह दम देखा तो उस के होंठ पे बुतख़ाला था
ममनून निज़ामुद्दीन
शेर
गुमाँ न क्यूँकि करूँ तुझ पे दिल चुराने का
झुका के आँख सबब क्या है मुस्कुराने का
ममनून निज़ामुद्दीन
शेर
पा लिया अहल-ए-जुनूँ ने फिर शहादत का मक़ाम
अक़्ल वाले मग़्फ़िरत की ही दुआ माँगा किए
मशकूर ममनून क़न्नौजी
शेर
न की ग़म्ज़ा ने जल्लादी न उन आँखों ने सफ़्फ़ाकी
जिसे कहते हैं दिल अपना वही क़ातिल हुआ जाँ का
ममनून निज़ामुद्दीन
शेर
वाँ रसाई ही नहीं मजनून-ए-सहरा-गर्द की
आलम-ए-इम्काँ से भी बाहर मिरा वीराना है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
सैल-ए-गिर्या का मैं ममनूँ हूँ कि जिस की दौलत
बह गई दिल से मिरे जूँ ख़स-ओ-ख़ाशाक हवस