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शेर
जो नफ़स था ख़ार-ए-गुलू बना जो उठे थे हाथ लहू हुए
वो नशात-ए-आह-ए-सहर गई वो वक़ार-ए-दस्त-ए-दुआ गया
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शेर
हम-आहंगी भी तेरी दूरी-ए-क़ुर्बत-नुमा निकली
कि तुझ से मिल के भी तुझ से मुलाक़ातें नहीं होतीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
अब ये होगा शायद अपनी आग में ख़ुद जल जाएँगे
तुम से दूर बहुत रह कर भी क्या पाया क्या पाएँगे
अहमद हमदानी
शेर
लगाई आग पानी में ये किस के अक्स ने प्यारे
कि हम-दीगर चली हैं मौज से दरिया में शमशीरें