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शेर
शब-ए-इंतिज़ार की कश्मकश में न पूछ कैसे सहर हुई
कभी इक चराग़ जला दिया कभी इक चराग़ बुझा दिया
मजरूह सुल्तानपुरी
शेर
अजीब कश्मकश है कैसे हर्फ़-ए-मुद्दआ कहूँ
वो पूछते हैं हाल-ए-दिल मैं सोचता हूँ क्या कहूँ
फ़िगार उन्नावी
शेर
मसरूर हो रहे हैं ग़म-ए-आशिक़ी से हम
क्यूँ तंग होंगे कशमकश-ए-ज़िंदगी से हम