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शेर
आस्तानों की क़दम-बोसी में पिन्हाँ ख़ून-ए-सर
और वुफ़ूर-ए-शौक़ में ये सर हो ख़म कुछ और है
अख़लाक़ अहमद आहन
शेर
न बोसा लेने देते हैं न लगते हैं गले मेरे
अभी कम-उम्र हैं हर बात पर मुझ से झिजकते हैं
भारतेंदु हरिश्चंद्र
शेर
चमन के रंग-ओ-बू ने इस क़दर धोका दिया मुझ को
कि मैं ने शौक़-ए-गुल-बोसी में काँटों पर ज़बाँ रख दी
अख़्तर होशियारपुरी
शेर
बदन पर इस-क़दर बारिश मिरे होती है बोसों की
कि जब बाँहें तिरी मुझ पर खुली हों डालियाँ बन कर