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शेर
ज़रा वो ख़ाक में मिलने न दे ख़ून-ए-शहीदाँ को
ख़ुदा तौफ़ीक़ दे इतनी ज़मीन-ए-कू-ए-जानाँ को
सफ़दर मिर्ज़ापुरी
शेर
बंदगी तेरी ख़ुदाई से बहुत है आगे
नक़्श-ए-सज्दा है तिरे नक़्श-ए-क़दम से पहले
अख़्तर अंसारी अकबराबादी
शेर
रफ़ीक राज़
शेर
सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के 'फ़िराक़'
क़ाफ़िले बसते गए हिन्दोस्ताँ बनता गया
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
आसमाँ कहते हैं जिस को वो ज़मीन-ए-शेर है
माह-ए-नौ मिस्रा है वस्फ़-ए-अबरू-ए-ख़मदार में