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शेर
'अर्ज़ी इंसाफ़ की हम ने भी लगा रक्खी है
देखिए ज़िल्ल-ए-इलाही हमें कब पूछते हैं
शहज़ाद अंजुम बुरहानी
शेर
बुत-ख़ाने में क्या याद-ए-इलाही नहीं मुमकिन
नाक़ूस से क्या कार-ए-अज़ाँ हो नहीं सकता
मुज़्तर ख़ैराबादी
शेर
मुझ से कहा जिब्रील-ए-जुनूँ ने ये भी वही-ए-इलाही है
मज़हब तो बस मज़हब-ए-दिल है बाक़ी सब गुमराही है
मजरूह सुल्तानपुरी
शेर
सरीर-ए-सल्तनत से आस्तान-ए-यार बेहतर था
हमें ज़िल्ल-ए-हुमा से साया-ए-दीवार बेहतर था
इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन
शेर
सुना है अर्श-ए-इलाही इसी को कहते हैं
तवाफ़-ए-काबा-ए-दिल हम ने सुब्ह-ओ-शाम किया