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शेर
सिराज औरंगाबादी
शेर
कच्ची दीवारें सदा-नोशी में कितनी ताक़ थीं
पत्थरों में चीख़ कर देखा तो अंदाज़ा हुआ
जमुना प्रसाद राही
शेर
कोई भूली हुई शय ताक़-ए-हर-मंज़र पे रक्खी थी
सितारे छत पे रक्खे थे शिकन बिस्तर पे रक्खी थी
राजेन्द्र मनचंदा बानी
शेर
सुना है मोहतसिब भी ताक में है दुख़्तर-ए-रज़ की
इलाही रख ले तू हुर्मत शराब-ए-अर्ग़वानी की
मोहसिन काकोरवी
शेर
सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का
वो इक गुल-दस्ता है हम बे-ख़ुदों के ताक़-ए-निस्याँ का
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
जो समझते थे हमीं से रौशनी दुनिया में है
वक़्त ने बे-वक़्त उन को रख दिया है ताक़ पर
राघवेंद्र द्विवेदी
शेर
मोहम्मद ज़ुबैर रूही इलाहाबादी
शेर
बुझा के रख गया है कौन मुझ को ताक़-ए-निस्याँ पर
मुझे अंदर से फूंके दे रही है रौशनी मेरी