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शेर
'क़मर' अपने दाग़-ए-दिल की वो कहानी मैं ने छेड़ी
कि सुना किए सितारे मिरा रात भर फ़साना
क़मर जलालवी
शेर
रात की तारीकियों में है दरख़्शाँ दाग़-ए-दिल
चाँद कहते फिर रहे हैं लोग मेरे ज़ख़्म को
सय्यद अदील गिलानी
शेर
मुफ़्लिस के दिए की सी तिरा दाग़-ए-दिल अपना
इक शब न जला बस-कि हुआ शाम से मअ'ज़ूल
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
दाग़-ए-दिल शब को जो बनता है चराग़-ए-दहलीज़
रौशनी घर में मिरे रहती है अंदर बाहर