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शेर
जन्नत-ए-सूफ़िया निसार दहर की मुश्त-ए-ख़ाक पर
आशिक़-ए-अर्ज़-ए-पाक को दावत-ए-ला-मकाँ न दे
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
मैं ने कहा कि दावा-ए-उल्फ़त मगर ग़लत
कहने लगे कि हाँ ग़लत और किस क़दर ग़लत
नवाब मोहम्मद सुफ़ अली खाँ बहादुर
शेर
मैं ने कब दावा-ए-इल्हाम किया है 'ताबाँ'
लिख दिया करता हूँ जो दिल पे गुज़रती जाए
ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ
शेर
इस भरी महफ़िल में हम से दावर-ए-महशर न पूछ
हम कहेंगे तुझ से अपनी दास्ताँ सब से अलग