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शेर
कहें हम बहर-ए-बे-पायान-ए-ग़म की माहियत किस से
न लहरों से कोई वाक़िफ़ न कोई थाह जाने है
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
शेर
पाया-ए-तख़्त-ए-सुलैमाँ का है शाएर 'मुसहफ़ी'
है उसी के ख़ातिम-ए-दस्त-ए-सुलैमाँ हाथ में
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
अब ये होगा शायद अपनी आग में ख़ुद जल जाएँगे
तुम से दूर बहुत रह कर भी क्या पाया क्या पाएँगे
अहमद हमदानी
शेर
चमन का शहर फ़स्ल-ए-गुल में जब आबाद था 'उज़लत'
सबा के रंग में गुल-गश्त कर हज़्ज़-ए-जुनूँ पाया
वली उज़लत
शेर
हक़ीक़ी और मजाज़ी शायरी में फ़र्क़ ये पाया
कि वो जामे से बाहर है ये पाजामे से बाहर है
अकबर इलाहाबादी
शेर
जब गुज़रती है शब-ए-हिज्र मैं जी उठता हूँ
ओहदा ख़ुर्शीद ने पाया है मसीहाई का
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
शेर
न पाया वक़्त ऐ ज़ाहिद कोई मैं ने इबादत का
शब-ए-हिज्राँ हुई आख़िर तो सुब्ह-ए-इंतिज़ार आई
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस
शेर
'जलील' इक शेर भी ख़ाली न पाया दर्द ओ हसरत से
ग़ज़ल-ख़्वानी नहीं ये दर-हक़ीक़त नौहा-ख़्वानी है
जलील मानिकपूरी
शेर
अहल-ए-म'अनी जुज़ न बूझेगा कोई इस रम्ज़ को
हम ने पाया है ख़ुदा को सूरत-ए-इंसाँ के बीच