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शेर
कभी बे-दाम ठहरावें कभी ज़ंजीर करते हैं
ये ना-शाएर तिरी ज़ुल्फ़ाँ कूँ क्या क्या नाम धरते हैं
आबरू शाह मुबारक
शेर
क्यूँ मलामत इस क़दर करते हो बे-हासिल है ये
लग चुका अब छूटना मुश्किल है उस का दिल है ये
आबरू शाह मुबारक
शेर
कहाँ मिलता है जाँ अन्क़ा है ऐसा बे-नियाज़ आशिक़
कि ख़्वाँ और माँ दिया है सब उड़ा और फिर नहीं पर्वा
आबरू शाह मुबारक
शेर
क्यूँ बंद सब खुले हैं क्यूँ चीरा लट पटा है
क्या क़त्ल कूँ हमारे अब ठाठ यूँ ठठा है