aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "शाख़-सार"
ग़ुबार सा है सर-ए-शाख़-सार कहते हैंचला है क़ाफ़िला-ए-नौ-बहार कहते हैं
हर एक शाम सँवर जाएगी मिरी 'मोहसिन'हर एक बात तुम्हारी है शाइ'री की तरह
वस्ल की रात के सिवा कोई शामसाथ ले कर सहर नहीं आती
बैठे थे जब तो सारे परिंदे थे साथ साथउड़ते ही शाख़ से कई सम्तों में बट गए
फलदार दरख़्तों ने रिझाया तो मुझे भीआज़ाद परिंदों के लिए शाख़-ओ-समर क्या
जो वक़्त जाएगा वो पलट कर न आएगादिन रात चाहिए सहर-ओ-शाम का लिहाज़
न हाथ सूख के झड़ते हैं जिस्म से अपनेन शाख़ कोई समर-बार अपनी होती है
दर्द की धूप में सहरा की तरह साथ रहेशाम आई तो लिपट कर हमें दीवार किया
गर्दिश-ए-चर्ख़ नहीं कम भी हंडोले से कि महरशाम को माह से ऊँचा है सहर है नीचा
इतना भी ना-उमीद दिल-ए-कम-नज़र न होमुमकिन नहीं कि शाम-ए-अलम की सहर न हो
कभी सहर तो कभी शाम ले गया मुझ सेतुम्हारा दर्द कई काम ले गया मुझ से
लेते हैं समर शाख़-ए-समरवर को झुका करझुकते हैं सख़ी वक़्त-ए-करम और ज़ियादा
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दोन जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए
शाख़ से गिर कर हवा के साथ साथकिस तरफ़ ये ज़र्द पत्ता जाएगा
अजब अंदाज़ के शाम-ओ-सहर हैंकोई तस्वीर हो जैसे अधूरी
चंद ख़ुश्बू के दिए साथ में ले आए हैंशाख़-ए-गुल दामन-ए-सौग़ात में ले आए हैं
शाम के साए बालिश्तों से नापे हैंचाँद ने कितनी देर लगा दी आने में
मिल ही जाएगी कभी मंज़िल-ए-मक़्सूद-ए-सहरशर्त ये है कि सफ़र करते रहो शाम के साथ
जा कहियो मेरा नसीम-ए-सहरमिरा चैन गया मिरी नींद गई
शाम के साए में जैसे पेड़ का साया मिलेमेरे मिटने का तमाशा देखने की चीज़ थी
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