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शेर
अक़्ल में जो घिर गया ला-इंतिहा क्यूँकर हुआ
जो समा में आ गया फिर वो ख़ुदा क्यूँकर हुआ
अकबर इलाहाबादी
शेर
उल्फ़त ने तिरी हम को तो रक्खा न कहीं का
दरिया का न जंगल का समा का न ज़मीं का
वाजिद अली शाह अख़्तर
शेर
होली के अब बहाने छिड़का है रंग किस ने
नाम-ए-ख़ुदा तुझ ऊपर इस आन अजब समाँ है
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
शेर
तमाम आलम से मोड़ कर मुँह मैं अपने अंदर समा गया हूँ
मुझे न आवाज़ दे ज़माने मैं अपनी आवाज़ सुन रहा हूँ
हनीफ़ कैफ़ी
शेर
मुझ सा आशिक़ आप सा माशूक़ तब होवे नसीब
जब ख़ुदा इक दूसरा अर्ज़-ओ-समा पैदा करे