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शेर
अश्क से मेरे बचे हम-साया क्यूँ-कर घर समेत
बह गई हैं कश्तियाँ इस बहर में लंगर समेत
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
हम ने माँगा था सहारा तो मिली इस की सज़ा
घटते बढ़ते रहे हम साया-ए-दीवार के साथ
मुग़ीसुद्दीन फ़रीदी
शेर
जो तू ऐ 'मुस्हफ़ी' रातों को इस शिद्दत से रोवेगा
तो मेरी जान फिर क्यूँके कोई हम-साया सोवेगा