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शेर
अभी तक फ़स्ल-ए-गुल में इक सदा-ए-दर्द आती है
वहाँ की ख़ाक से पहले जहाँ था आशियाँ मेरा
जगत मोहन लाल रवाँ
शेर
ताज़ीर-ए-जुर्म-ए-इश्क़ है बे-सर्फ़ा मोहतसिब
बढ़ता है और ज़ौक़-ए-गुनह याँ सज़ा के ब'अद
अल्ताफ़ हुसैन हाली
शेर
काफ़िर-ए-इश्क़ हूँ ऐ शैख़ पे ज़िन्हार नहीं
तेरी तस्बीह को निस्बत मिरी ज़ुन्नार के साथ
हसरत अज़ीमाबादी
शेर
हज़रत-ए-इश्क़ ने दोनों को किया ख़ाना-ख़राब
बरहमन बुत-कदा और शैख़ हरम भूल गए