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शेर
जो ये कहे कि रेख़्ता क्यूँके हो रश्क-ए-फ़ारसी
गुफ़्ता-ए-'ग़ालिब' एक बार पढ़ के उसे सुना कि यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
जिस को चलना है चले रख़्त-ए-सफ़र बाँधे हुए
हम जहाँ-गश्त हैं उट्ठे हैं कमर बाँधे हुए
अज़ीज़ तमन्नाई
शेर
तकलीफ़ न दे हम को तो गुल-गश्त-ए-चमन की
ख़ुद सीना तिरे दाग़ों से गुलशन है हमारा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
साक़िया हिज्र में कब है हवस-ए-गुफ़्त-ओ-शुनीद
साग़र-ए-गोश से मीना-ए-ज़बाँ दूर रहे