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शेर
ऐ सालिक इंतिज़ार-ए-हज में क्या तू हक्का-बक्का है
बगूले सा तो कर ले तौफ़ दिल पहलू में मक्का है
वली उज़लत
शेर
उम्र अपनी तो इसी तौर से गुज़री है 'हबीब'
रहा तूफ़ाँ ही निगाहों में किनारा न रहा