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शेर
मुँह खोले तो रोज़ है रौशन ज़ुल्फ़ बिखेरे रात है फिर
इन तौरों से आशिक़ क्यूँ-कर सुब्ह को अपनी शाम करें
मीर तक़ी मीर
शेर
उल्फ़त ने तिरी हम को तो रक्खा न कहीं का
दरिया का न जंगल का समा का न ज़मीं का