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शेर
ग़ैर से दूर मगर उस की निगाहों के क़रीं
महफ़िल-ए-यार में इस ढब से अलग बैठा हूँ
पीर नसीरुद्दीन शाह नसीर
शेर
दोस्त ने दिल को तोड़ के नक़्श-ए-वफ़ा मिटा दिया
समझे थे हम जिसे ख़लील काबा उसी ने ढा दिया