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शेर
फूल तो दो दिन बहार-ए-जाँ-फ़ज़ा दिखला गए
हसरत उन ग़ुंचों पे है जो बिन खिले मुरझा गए
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
शेर
डाल कर ग़ुंचों की मुँदरी शाख़-ए-गुल के कान में
अब के होली में बनाना गुल को जोगन ऐ सबा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
मौसम-ए-गुल का मगर क़ाफ़िला जाता है कि आज
सारे ग़ुंचों से जो आवाज़-ए-जरस आती है
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
शेर
गुनह-गारों में शामिल हैं गुनाहों से नहीं वाक़िफ़
सज़ा को जानते हैं हम ख़ुदा जाने ख़ता क्या है