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शेर
हुस्न काफ़िर था अदा क़ातिल थी बातें सेहर थीं
और तो सब कुछ था लेकिन रस्म-ए-दिलदारी न थी
आल-ए-अहमद सुरूर
शेर
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है
बिस्मिल अज़ीमाबादी
शेर
उठा पर्दा तो महशर भी उठेगा दीदा-ए-दिल में
क़यामत छुप के बैठी है नक़ाब-ए-रू-ए-क़ातिल में
फ़ना बुलंदशहरी
शेर
हूँ तिश्ना-काम-ए-दश्त-ए-शहादत ज़ि-बस कि मैं
गिरता हूँ आब-ए-ख़ंजर-ओ-शमशीर देख कर