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शेर
बहुत ज़ख़ीम किताबों से चुन के लाया हूँ
इन्हें पढ़ो वरक़-ए-इंतिख़ाब हैं मिरे दोस्त
लियाक़त अली आसिम
शेर
बंदगी तेरी ख़ुदाई से बहुत है आगे
नक़्श-ए-सज्दा है तिरे नक़्श-ए-क़दम से पहले
अख़्तर अंसारी अकबराबादी
शेर
नाम से तेरे जो रौशन मतला-ए-दीवाँ हुआ
हर वरक़ ख़ुर्शीद का मानिंद-ए-नूर अफ़्शाँ हुआ
राजा जिया लाल बहादुर गुलशन
शेर
न तिरे सिवा कोई लिख सके न मिरे सिवा कोई पढ़ सके
ये हुरूफ़-ए-बे-वरक़-ओ-सबक़ हमें क्या ज़बान सिखा गए
जमीलुद्दीन आली
शेर
देखा ज़ाहिद ने जो उस रू-ए-किताबी को तो बस
वरक़-ए-कुफ़्र लिया दफ़्तर-ए-ईमान को फाड़
जुरअत क़लंदर बख़्श
शेर
दिल के अज्ज़ा में नहीं मिलता कोई जुज़्व-ए-निशात
इस सहीफ़े से किसी ने इक वरक़ कम कर दिया
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
शेर
क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाए क्यूँ