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शेर
ज़ि-बस काफ़िर-अदायों ने चलाए संग-ए-बे-रहमी
अगर सब जम'अ करता मैं तो बुत-ख़ाने हुए होते
सिराज औरंगाबादी
शेर
किसी के संग-ए-दर से एक मुद्दत सर नहीं उट्ठा
मोहब्बत में अदा की हैं नमाज़ें बे-वुज़ू बरसों
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
तुझ को पा कर भी न कम हो सकी बे-ताबी-ए-दिल
इतना आसान तिरे इश्क़ का ग़म था ही नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
अफ़ीफ़ सिराज
शेर
जब उस बे-मेहर को ऐ जज़्ब-ए-दिल कुछ जोश आता है
मह-ए-नौ की तरह खोले हुए आग़ोश आता है
वज़ीर अली सबा लखनवी
शेर
ऐ दिल-ए-बे-जुरअत इतनी भी न कर बे-जुरअती
जुज़ सबा उस गुल का इस दम पासबाँ कोई नहीं
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
तू गोश-ए-दिल से सुने उस को गर बत-ए-बे-मेहर
फ़साना तुर्फ़ा है और माजरा है ज़ोर मिरा