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शेर
गले में अपने पहना है जो तू ने ऐ बुत-ए-काफ़िर
मिरी तस्बीह को है रश्क ज़ुन्नार-ए-बरहमन पर
मीर कल्लू अर्श
शेर
आलम-ए-मस्ती में मेरे मुँह से कुछ निकला जो रात
बोल उठा तेवरी चढ़ा कर वो बुत-ए-मय-ख़्वार चुप
जुरअत क़लंदर बख़्श
शेर
क़द्र कुछ भी मिरे दिल की बुत-ए-काफ़िर ने न की
ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ से जो उलझा तो मिरे सर मारा