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शेर
'क़ाएम' हयात-ओ-मर्ग-ए-बुज़-ओ-गाव में हैं नफ़अ
इस मर्दुमी के शोर पे किस काम का हूँ मैं
क़ाएम चाँदपुरी
शेर
दिल धड़कता है शब-ए-ग़म में कहीं ऐसा न हो
मर्ग भी बन कर मिज़ाज-ए-यार तरसाए मुझे
मुंशी अमीरुल्लाह तस्लीम
शेर
कुछ ऐसी बन गई तस्वीर उस के दस्त-ए-क़ुदरत से
रहा हैराँ बना कर आप सूरत-आफ़रीं बरसों
बन्द्र इब्न-ए-राक़िम
शेर
ज़िंदगी मर्ग-ए-तलब तर्क-ए-तलब 'अख़्तर' न थी
फिर भी अपने ताने-बाने में मुझे उलझा गई