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शेर
मुझ से दरिया-नोश को साक़ी पिलाता है शराब
देखता हूँ मैं भी ज़र्फ़-ए-शीशा-ओ-पैमाना आज
हैदर अली आतिश
शेर
जब फ़स्ल-ए-बहाराँ आती है शादाब गुलिस्ताँ होते हैं
तकमील-ए-जुनूँ भी होती है और चाक गरेबाँ होते हैं
अनवर सहारनपुरी
शेर
अपनी कश्ती सर पे रख कर चल रहे हैं हम 'शहाब'
ये भी मुमकिन है कि अगले मोड़ पर दरिया मिले