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शेर
क़दम अपने हरीम-ए-नाज़ में इस शौक़ से रखना
कि जो देखे मिरे दिल को तुम्हारा आस्ताँ समझे
फ़िगार उन्नावी
शेर
मिटा मिटा सा तसव्वुर है नाज़ माज़ी का
हयात-ए-नौ है अब इस उम्र-ए-राएगाँ से गुरेज़
नाज़नीन बेगम नाज़
शेर
दोनों हों कैसे एक जा 'मेहदी' सुरूर-ओ-सोज़-ए-दिल
बर्क़-ए-निगाह-ए-नाज़ ने गिर के बता दिया कि यूँ
एस ए मेहदी
शेर
रुस्वा अगर न करना था आलम में यूँ मुझे
ऐसी निगाह-ए-नाज़ से देखा था क्यूँ मुझे