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शेर
कुश्ता-ए-रंग-ए-हिना हूँ मैं अजब इस का क्या
कि मिरी ख़ाक से मेहंदी का शजर पैदा हो
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
इक तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल है सो वो उन को मुबारक
इक अर्ज़-ए-तमन्ना है सो हम करते रहेंगे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शेर
मैं अज़ल से सुब्ह-ए-महशर तक फ़रोज़ाँ ही रहा
हुस्न समझा था चराग़-ए-कुश्ता-ए-महफ़िल मुझे
जिगर मुरादाबादी
शेर
घाट पर तलवार के नहलाईयो मय्यत मिरी
कुश्ता-ए-अबरू हूँ मैं क्या ग़ुस्ल-ख़ाना चाहिए
असद अली ख़ान क़लक़
शेर
कभी मदफ़ून हुए थे जिस जगह पर कुश्ता-ए-अबरू
अभी तक इस ज़मीं से सैकड़ों ख़ंजर निकलते हैं
रशीद लखनवी
शेर
मैं चला आया तिरा हुस्न-ए-तग़ाफ़ुल ले कर
अब तिरी अंजुमन-ए-नाज़ में रक्खा क्या है
फ़ना निज़ामी कानपुरी
शेर
किया है चाक दिल तेग़-ए-तग़ाफ़ुल सीं तुझ अँखियों नीं
निगह के रिश्ता ओ सोज़न सूँ पलकाँ के रफ़ू कीजे
आबरू शाह मुबारक
शेर
सिराज औरंगाबादी
शेर
गरचे है तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल पर्दा-दार-ए-राज़-ए-इश्क़
पर हम ऐसे खोए जाते हैं कि वो पा जाए है
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
बादबानों में भरी है इस के क्या बाद-ए-नफ़स
कश्ती-ए-उम्र-ए-रवाँ को ताब लंगर की नहीं