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शेर
जो लड़खड़ाए क़दम मय-कदे में मस्तों के
बग़ल में हज़रत-ए-नासेह थे बढ़ के थाम लिया
मुबारक अज़ीमाबादी
शेर
लड़खड़ाना भी है तकमील-ए-सफ़र की तम्हीद
हम को मंज़िल का निशाँ लग़्ज़िश-ए-पैहम से मिला
रविश सिद्दीक़ी
शेर
कोई दीवाना चाहे भी तो लग़्ज़िश कर नहीं सकता
तिरे कूचे में पाँव लड़खड़ाना भूल जाते हैं