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शेर
अज़ाबों से टपकती ये छतें बरसों चलेंगी
अभी से क्यूँ मकीं मसरूफ़-ए-मातम हो गए हैं
मुसव्विर सब्ज़वारी
शेर
मसरूर-ओ-मुतमइन हैं बहुत ताजिरान-ए-वक़्त
क्या ज़िंदगी के ख़्वाब भी नीलाम हो गए