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शेर
तू है मअ'नी पर्दा-ए-अल्फ़ाज़ से बाहर तो आ
ऐसे पस-मंज़र में क्या रहना सर-ए-मंज़र तो आ
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
शेर
ये तिलिस्म-ए-मौसम-ए-गुल नहीं कि ये मोजज़ा है बहार का
वो कली जो शाख़ से गिर गई वो सबा की गोद में पल गई
गुलनार आफ़रीन
शेर
वही इक मौसम-ए-सफ़्फ़ाक था अंदर भी बाहर भी
अजब साज़िश लहू की थी अजब फ़ित्ना हवा का था
राजेन्द्र मनचंदा बानी
शेर
तम्हीद थी जुनूँ की गरेबाँ हुआ जो चाक
यानी ये ख़ैर-मक़्दम-ए-फ़स्ल-ए-बहार था