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शेर
मुज़्तर ख़ैराबादी
शेर
आदमी क्या वो न समझे जो सुख़न की क़द्र को
नुत्क़ ने हैवाँ से मुश्त-ए-ख़ाक को इंसाँ किया
हैदर अली आतिश
शेर
माना कि मुश्त-ए-ख़ाक से बढ़ कर नहीं हूँ मैं
लेकिन हवा के रहम-ओ-करम पर नहीं हूँ मैं
मुज़फ़्फ़र वारसी
शेर
तुम्हीं सच सच बताओ कौन था शीरीं के पैकर में
कि मुश्त-ए-ख़ाक की हसरत में कोई कोह-कन क्यों हो
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
जन्नत-ए-सूफ़िया निसार दहर की मुश्त-ए-ख़ाक पर
आशिक़-ए-अर्ज़-ए-पाक को दावत-ए-ला-मकाँ न दे
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
अपनी मिट्टी है कहाँ की क्या ख़बर बाद-ए-सबा
हो परेशाँ देखिए किस किस जगह मुश्त-ए-ग़ुबार
सुरूर जहानाबादी
शेर
जब चाहे तू जला दे मिरे मुश्त-ए-उस्तुख़्वाँ
किस दिन कहा मैं ऐ नफ़स-ए-आतिशीं नहीं
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
तुफ़ैल-ए-रूह मिरा जिस्म-ए-ज़ार बाक़ी है
हुआ के दम से ये मुश्त-ए-ग़ुबार बाक़ी है
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
शेर
पस-ए-मुर्दन भी मुश्त-ए-ख़ाक में कैसी ये वहशत है
उठा करती है आँधी बन के ख़ाक-ए-राएगाँ मेरी
सोज़ होशियारपूरी
शेर
इश्क़ का ज़ौक़-ए-नज़ारा मुफ़्त में बदनाम है
हुस्न ख़ुद बे-ताब है जल्वा दिखाने के लिए