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शेर
जहाँ से हूँ यहाँ आया वहाँ जाऊँगा आख़िर को
मिरा ये हाल है यारो न मुस्तक़बिल न माज़ी हूँ
मातम फ़ज़ल मोहम्मद
शेर
हसरत-ए-दिल ना-मुकम्मल है किताब-ए-ज़िंदगी
जोड़ दे माज़ी के सब औराक़ मुस्तक़बिल के साथ
फ़िगार उन्नावी
शेर
अगर टूटूँ तो मेरी किर्चियाँ माज़ी को दे देना
कि मुस्तक़बिल में फिर मेरी नई तज्सीम होनी है