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शेर
अल्लाह रे ज़ौक़-ए-दश्त-नवर्दी कि बाद-ए-मर्ग
हिलते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद मिरे अंदर कफ़न के पाँव
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
रहरव-ए-राह-ए-मोहब्बत रह न जाना राह में
लज़्ज़त-ए-सहरा-नवर्दी दूरी-ए-मंज़िल में है
बिस्मिल अज़ीमाबादी
शेर
दिन को है सहरा-नवर्दी से हमें काम ऐ रफ़ीक़
शब को बिस्तर पर पड़े रहते हैं मन मारे हुए
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
अमल से ज़िंदगी बनती है जन्नत भी जहन्नम भी
ये ख़ाकी अपनी फ़ितरत में न नूरी है न नारी है
अल्लामा इक़बाल
शेर
इक दिन तो लिपट जाए तसव्वुर ही से तेरे
ये भी दिल-ए-नामर्द को जुरअत नहीं मिलती
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
इश्क़ ने मंसब लिखे जिस दिन मिरी तक़दीर में
दाग़ की नक़दी मिली सहरा मिला जागीर में
बक़ा उल्लाह 'बक़ा'
शेर
पीर-ए-मुग़ाँ के पास वो दारू है जिस से 'ज़ौक़'
नामर्द मर्द मर्द-ए-जवाँ-मर्द हो गया