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शेर
मुझे काफ़िर ही बताता है ये वाइज़ कम-बख़्त
मैं ने बंदों में कई बार ख़ुदा को देखा
मिर्ज़ा मायल देहलवी
शेर
तोड़े हैं बहुत शीशा-ए-दिल जिस ने 'नज़ीर' आह
फिर चर्ख़ वही गुम्बद-ए-मीनाई है कम-बख़्त
नज़ीर अकबराबादी
शेर
जिस नूर के बक्के को मह-ओ-ख़ुर ने न देखा
कम-बख़्त ये दिल लोटे है उस पर्दा-नशीं पर
जुरअत क़लंदर बख़्श
शेर
की दिल ने दिल-बरान-ए-जहाँ की बहुत तलाश
कुइ दिल-रुबा मिला है न दिल-ख़्वाह क्या करे
मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार
शेर
काम 'अंजुम' का जो तमाम किया ये आप ने वाक़ई ख़ूब किया
कम-बख़्त इसी के लाएक़ था अब आप अबस पछताते हैं
अंजुम मानपुरी
शेर
शायद मिज़ाज हम से मुकद्दर है यार का
लिक्खा है उस ने हम को ब-ख़्त्त-ए-ग़ुबार ख़त