aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "pachhtaanaa"
हुआ है जो सदा उस को नसीबों का लिखा समझा'अदीम' अपने किए पर मुझ को पछताना नहीं आता
ज़ख़्म झेले दाग़ भी खाए बहुतदिल लगा कर हम तो पछताए बहुत
याद उसे भी एक अधूरा अफ़्साना तो होगाकल रस्ते में उस ने हम को पहचाना तो होगा
शायद मुझे निकाल के पछता रहे हों आपमहफ़िल में इस ख़याल से फिर आ गया हूँ मैं
आप पछताएँ नहीं जौर से तौबा न करेंआप के सर की क़सम 'दाग़' का हाल अच्छा है
तुझ को भी क्यूँ याद रखासोच के अब पछताते हैं
ये उदासी ये फैलते साएहम तुझे याद कर के पछताए
पचपन बरस की उम्र तो होने को आ गईलेकिन वो चेहरा आँखों से ओझल न हो सका
सफ़र तवील सही हासिल-ए-सफ़र ये हैवहाँ को भूल गए और यहाँ को पहचाना
अजब तरह से गुज़ारी है ज़िंदगी हम नेजहाँ में रह के न कार-ए-जहाँ को पहचाना
मिरे जुनूँ ने ज़माने को ख़ूब पहचानावो पैरहन मुझे बख़्शा कि पारा पारा नहीं
कई लोगों ने फलते फूलते पेड़ों से जाना हैमगर मैं ने तुझे सब्ज़े की उर्यानी से पहचाना
आदमी पहचाना जाता है क़याफ़ा देख करख़त का मज़मूँ भाँप लेते हैं लिफ़ाफ़ा देख कर
हाए इज़हार कर के पछताएउस को इक दोस्त की ज़रूरत थी
उतारा दिल के वरक़ पर तो कितना पछतायावो इंतिसाब जो पहले बस इक किताब पे था
बुतों को देख के सब ने ख़ुदा को पहचानाख़ुदा के घर तो कोई बंदा-ए-ख़ुदा न गया
हम ने तो लुट के मोहब्बत की रिवायत रख लीउन से तो पोछिए वो किस लिए पछताते रहे
ज़ालिम जफ़ा जो चाहे सो कर मुझ पे तू वलेपछतावे फिर तू आप ही ऐसा न कर कहीं
ख़ुद अपने ग़म ही से की पहले दोस्ती हम नेऔर उस के बा'द ग़म-ए-दोस्ताँ को पहचाना
कितनी बे-सूद जुदाई है कि दुख भी न मिलाकोई धोका ही वो देता कि मैं पछता सकता
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