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शेर
हज़ारों बार सींचा है इसे ख़ून-ए-रग-ए-जाँ से
तअ'ज्जुब है मिरे गुलशन की वीरानी नहीं जाती
मुज़फ्फ़र अहमद मुज़फ्फ़र
शेर
तिरे जुज़्व जुज़्व ख़याल को रग-ए-जाँ में पूरा उतार कर
वो जो बार बार की शक्ल थी उसे एक बार बना दिया
इक़बाल कौसर
शेर
रिश्ता-ए-उल्फ़त रग-ए-जाँ में बुतों का पड़ गया
अब ब-ज़ाहिर शग़्ल है ज़ुन्नार का फ़े'अल-ए-अबस
बहराम जी
शेर
एक नश्तर है कि देता है रग-ए-जाँ को ख़राश
एक काँटा है कि पहलू में चुभोता है कोई
मेहदी अली ख़ान ज़की लखनवी
शेर
बाग़बाँ काटियो मत मौसम-ए-गुल में उस को
रग-ए-जाँ को मिरी निस्बत है रग-ए-ताक के साथ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
मोहब्बत में इक ऐसा वक़्त भी आता है इंसाँ पर
सितारों की चमक से चोट लगती है रग-ए-जाँ पर