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शेर
मुज़्तर ख़ैराबादी
शेर
जाँ-कनी पेशा हो जिस का वो लहक है तेरा
तुझ पे शीरीं है न 'ख़ुसरव' का न फ़रहाद का हक़
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी
शेर
ख़ुदाया यूँ भी हो कि उस के हाथों क़त्ल हो जाऊँ
वही इक ऐसा क़ातिल है जो पेशा-वर नहीं लगता
अहमद कमाल परवाज़ी
शेर
हम इस शहर-ए-जफ़ा-पेशा से कुछ उम्मीद क्या रक्खें
यहाँ इस हाव-हू में ख़ामुशी को कौन लिक्खेगा
हिजाब अब्बासी
शेर
मेरे ख़्वाबों में भी तू मेरे ख़यालों में भी तू
कौन सी चीज़ तुझे तुझ से जुदा पेश करूँ
साहिर लुधियानवी
शेर
शैख़ अपनी रग को क्या करें रेशे को क्या करें
मज़हब के झगड़े छोड़ें तो पेशे को क्या करें