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शेर
क्यूँ पास मिरे आ कर यूँ बैठे हो मुँह फेरे
क्या लब तिरे मिस्री हैं मैं जिन को चबा जाता
मीर मेहदी मजरूह
शेर
मिल गए थे एक बार उस के जो मेरे लब से लब
'उम्र भर होंटों पे अपने मैं ज़बाँ फेरा किया
जुरअत क़लंदर बख़्श
शेर
शिद्दत-ए-तिश्नगी में भी ग़ैरत-ए-मय-कशी रही
उस ने जो फेर ली नज़र मैं ने भी जाम रख दिया
अहमद फ़राज़
शेर
क्या हँसी आती है मुझ को हज़रत-ए-इंसान पर
फ़े'ल-ए-बद ख़ुद ही करें ला'नत करें शैतान पर