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शेर
पीछे मुड़ मुड़ कर न देखो ऐ 'मुनव्वर' बढ़ चलो
शहर में अहबाब तो कम हैं सगे भाई बहुत
मुनव्वर बदायुनी
शेर
घर की तक़्सीम वसिय्यत के मुताबिक़ होगी
फिर भी क्यों मुझ को सगे भाई से डर लगता है
मेराज अहमद मेराज
शेर
घर की तक़्सीम वसिय्यत के मुताबिक़ होगी
फिर भी क्यों मुझ को सगे भाई से डर लगता है
मेराज अहमद मेराज
शेर
गो सग-ए-दुनिया हूँ पर तन्हा-ख़ुरी मुझ में नहीं
टुकड़ा टुकड़ा बाँट खाया जो मयस्सर हो गया
अमान अली सहर लखनवी
शेर
सगी बहनों का जो रिश्ता है उर्दू और हिन्दी में
कहीं दुनिया की दो ज़िंदा ज़बानों में नहीं मिलता
मुनव्वर राना
शेर
वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क़ जब सर फोड़ना ठहरा
तो फिर ऐ संग-दिल तेरा ही संग-ए-आस्ताँ क्यूँ हो
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
अज़ल से आज तक सज्दे किए और ये नहीं सोचा
किसी का आस्ताँ क्यूँ है किसी का संग-ए-दर क्या है
सबा अकबराबादी
शेर
मोहब्बत में वफ़ा की हद जफ़ा की इंतिहा कैसी
'मुबारक' फिर न कहना ये सितम कोई सहे कब तक
मुबारक अज़ीमाबादी
शेर
ग़म-ए-आशिक़ी में गिरह-कुशा न ख़िरद हुई न जुनूँ हुआ
वो सितम सहे कि हमें रहा न पए-ख़िरद न सर-ए-जुनूँ