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शेर
जान जानी है मिरी ऐ बुत-ए-कम-सिन तुझ पर
मर ही जाऊँगा गला काट के इक दिन तुझ पर
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
गले में अपने पहना है जो तू ने ऐ बुत-ए-काफ़िर
मिरी तस्बीह को है रश्क ज़ुन्नार-ए-बरहमन पर
मीर कल्लू अर्श
शेर
क्यूँ उजाड़ा ज़ाहिदो बुत-ख़ाना-ए-आबाद को
मस्जिदें काफ़ी न होतीं क्या ख़ुदा की याद को
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
मैं न जानूँ काबा-ओ-बुत-ख़ाना-ओ-मय-ख़ाना कूँ
देखता हूँ हर कहाँ दस्ता है तुज मुख का सफ़ा
क़ुली क़ुतुब शाह
शेर
अगर चिलमन के बाहर वो बुत-ए-काफ़िर-अदा निकले
ज़बान-ए-शैख़ से सल्ले-अला सल्ले-अला निकले
रंजूर अज़ीमाबादी
शेर
तू गोश-ए-दिल से सुने उस को गर बत-ए-बे-मेहर
फ़साना तुर्फ़ा है और माजरा है ज़ोर मिरा