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शेर
दस्त-ए-शिकस्ता अपना न पहुँचा कभी दरेग़
वाँ तर्फ़-ए-दोश बर-सर-ए-दस्तार ही रहा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
जो बार-ए-दोश रहा सर वो कब था शोरीदा
बहा न जिस से लहू वो रग-ए-गुलू क्या थी
अकबर अली खान अर्शी जादह
शेर
आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त घबराता हूँ मैं
जैसे हर शय में किसी शय की कमी पाता हूँ मैं
जिगर मुरादाबादी
शेर
तिरी तारीफ़ हो ऐ साहिब-ए-औसाफ़ क्या मुमकिन
ज़बानों से दहानों से तकल्लुम से बयानों से
कल्ब-ए-हुसैन नादिर
शेर
किस तरह कर दिया दिल-ए-नाज़ुक को चूर-चूर
इस वाक़िआ' की ख़ाक है पत्थर को इत्तिलाअ'