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शेर
न मिज़ाज-ए-नाज़-ए-जल्वा कभी पा सकीं निगाहें
कि उलझ के रह गई हैं तिरी ज़ुल्फ़-ए-ख़म-ब-ख़म में
अख़्तर ओरेनवी
शेर
दिल उस की तार-ए-ज़ुल्फ़ के बल में उलझ गया
सुलझेगा किस तरह से ये बिस्तार है ग़ज़ब
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
शेर
आग से रिश्ता है मेरा और दरिया भी है अपना
आए दिन दोनों के झगड़े में उलझ कर रह गया हूँ
राघवेंद्र द्विवेदी
शेर
ज़ुल्फ़-ए-पुर-पेच के सौदे में अजब क्या इम्काँ
गर उलझ जाए ख़रीदार ख़रीदार के साथ