aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "uljho"
भँवर से लड़ो तुंद लहरों से उलझोकहाँ तक चलोगे किनारे किनारे
बहुत ग़ुरूर है दरिया को अपने होने परजो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियाँ उड़ जाएँ
कभी मैं अपने हाथों की लकीरों से नहीं उलझामुझे मालूम है क़िस्मत का लिक्खा भी बदलता है
क्या क्या हुआ है हम से जुनूँ में न पूछिएउलझे कभी ज़मीं से कभी आसमाँ से हम
कुछ और भी हैं काम हमें ऐ ग़म-ए-जानाँकब तक कोई उलझी हुई ज़ुल्फ़ों को सँवारे
हम लोग न उलझे हैं न उलझेंगे किसी सेहम को तो हमारा ही गरेबान बहुत है
कोई समझेगा क्या राज़-ए-गुलशनजब तक उलझे न काँटों से दामन
कब तक नजात पाएँगे वहम ओ यक़ीं से हमउलझे हुए हैं आज भी दुनिया ओ दीं से हम
दफ़अतन तर्क-ए-तअल्लुक़ में भी रुस्वाई हैउलझे दामन को छुड़ाते नहीं झटका दे कर
उलझा है पाँव यार का ज़ुल्फ़-ए-दराज़ मेंलो आप अपने दाम में सय्याद आ गया
हम भी इक शाम बहुत उलझे हुए थे ख़ुद मेंएक शाम उस को भी हालात ने मोहलत नहीं दी
जो उलझी थी कभी आदम के हाथोंवो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूँ
मुझ को हालात में उलझा हुआ रहने दे यूँहीमैं तिरी ज़ुल्फ़ नहीं हूँ जो सँवर जाऊँगा
इक सिरा उलझी हुई डोर का हाथ आया हैदूसरे तक भी पहुँच जाऊँगा सुलझाते हुए
शग़ुफ़्तगी-ए-दिल-ए-कारवाँ को क्या समझेवो इक निगाह जो उलझी हुई बहार में है
कई झमेलों में उलझी सी बद-मज़ा चायउदास मेज़ पे दफ़्तर के काग़ज़ात का दुख
तू कभी इस शहर से हो कर गुज़ररास्तों के जाल में उलझा हूँ मैं
सर पे एहसान रहा बे-सर-ओ-सामानी काख़ार-ए-सहरा से न उलझा कभी दामन अपना
कितने तूफ़ानों से हम उलझे तुझे मालूम क्यापेड़ के दुख-दर्द का फूलों से अंदाज़ा न कर
मैं सोचता हूँ ज़माने का हाल क्या होगाअगर ये उलझी हुई ज़ुल्फ़ तू ने सुलझाई
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