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शेर
देख ज़िंदाँ से परे रंग-ए-चमन जोश-ए-बहार
रक़्स करना है तो फिर पाँव की ज़ंजीर न देख
मजरूह सुल्तानपुरी
शेर
कमाल-ए-ज़ब्त में यूँ अश्क-ए-मुज़्तर टूट कर निकला
असीर-ए-ग़म कोई ज़िंदाँ से जैसे छूट कर निकला
सबा अकबराबादी
शेर
मक़्तल-ए-जाँ से कि ज़िंदाँ से कि घर से निकले
हम तो ख़ुशबू की तरह निकले जिधर से निकले
उम्मीद फ़ाज़ली
शेर
भाग चलूँ यादों के ज़िंदाँ से अक्सर सोचा लेकिन
जब भी क़स्द किया तो देखा ऊँची है दीवार बहुत
वहीद अर्शी
शेर
लहू से मैं ने लिखा था जो कुछ दीवार-ए-ज़िंदाँ पर
वो बिजली बन के चमका दामन-ए-सुब्ह-ए-गुलिस्ताँ पर
सीमाब अकबराबादी
शेर
न किसी आह की आवाज़ न ज़ंजीर का शोर
आज क्या हो गया ज़िंदाँ में कि ज़िंदाँ चुप है