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शेर
ख़त्म करना चाहता हूँ पेच-ओ-ताब-ए-ज़िंदगी
याद-ए-गेसू ज़ोर-ए-बाज़ू बन मिरे शाने में आ
नातिक़ गुलावठी
शेर
क्या ख़ूब ‘बर्क़’ तू ने दिखाया है ज़ोर-ए-तब्अ
काग़ज़ पे रख दिया है कलेजा निकाल के
मुंशी राम रखा बर्क़
शेर
मेरे दिल-ए-शिकस्ता को कहती है देख ख़ल्क़
क्या ज़ोर-ए-आईना है ये होवे अगर दुरुस्त
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
लुटा ये कारवाँ कब का न जाने कौन थी मंज़िल
मगर अहबाब अब भी ज़ो'म-ए-चुग़्ताई में जीते हैं
अख़लाक़ अहमद आहन
शेर
ज़ो'म-ए-तुक़ा हिजाब-ए-तज़ाहुर निफ़ाक़ का
हर जा रक़म है इस में भी इज़्न ओ क़ुम-ए-दरोग़