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शेर
शैख़ इस बुत-शिकनी पर न हो इतना मग़रूर
तू ने तोड़ा नहीं अपना बुत-ए-पिंदार हनूज़
शेख़ ग़ुलाम अली रासिख़
शेर
ज़ाहिद मिरी समझ में तो दोनों गुनाह हैं
तू बुत-शिकन हुआ जो मैं तौबा-शिकन हुआ
सरदार गेंडा सिंह मशरिक़ी
शेर
चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है
हम ही हम हैं तो क्या हम हैं तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो
सरशार सैलानी
शेर
अफ़्साना-गो को याद नहीं ख़त्म-ए-दास्ताँ
छेड़ी है उस ने ज़ुल्फ़-ए-शिकन-दर-शिकन की बात
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
चमन वालों से मुझ सहरा-नशीं की बूद-ओ-बाश अच्छी
बहार आ कर चली जाती है वीरानी नहीं जाती